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गरीबों की सुविधा और गरीबी दूर करने के लिए वैसे केन्द्र व प्रदेश की सरकारें तमाम तरह की कोशिशें करने का दावा करती हैं लेकिन वे हकीकत में गरीबों के लिए कितनी हद तक फिक्रमंद हैं इसका अंदाजा वर्तमान दिनों में दाल और रोटी की कीमतों से लगाया जा सकता है। असल में कालाबाजारी और जमाखोरी तथा मिलावटखोरी पर लगाम कसने में सरकारें पूरी तरह नाकाम हैं। उनके आदेशों-निर्देशों की सरकारी मुलाजिम खुद ही हवा निकालने में पीछे नहीं है। ऐसे में गरीबों के लिए दाल-रोटी का जुगाड़ स्वप्न बनता जा रहा है।
जरा गौर करें इन दिनों खुले बाजार में दाल 80 से 90 रुपये प्रति किलोग्राम है। अरहर की दाल न मिलने की दशा में गरीब चना, मटर कि दाल से काम चलाता था लेकिन उसकी कीमतें भी 50 रुपये के आसपास हैं। इसी तरह चीनी भी 46 से 48 रुपये प्रति किलो की दर से बक रही है। आटा 10 से 12 रुपये किलो के हिसाब से बिक रहा है और चावल की बिक्री 15 रुपये से लेकर 20 रुपये के बीच की जा रही है। दिनोंदिन बढ़ती महंगाई के कारण दिहाड़ी मजदूरी पर कार्य करने वाले मजदूर अथवा दस हजार रुपये से कम पगार पाने वाले कर्मचारियों का जीवन संकटमय हो गया है। साधारण होटलों में रोटी 3 रुपये लेकर 6 रुपये की कीमत पर बेची जा रही है जबकि फुल प्लेट चावल की कीमत 50 रुपये तक पहुंच चुकी है।
आसमान की तरफ उछाल मारती महंगाई में कोटे का राशन गरीबों को राहत दे सकता था लेकिन इस पर सयाने लोगों का कब्जा हो चुका है। दुकानदान 30 प्रतिशत खाद्यान्न वितरित करता है और 70 फीसदी कालाबाजारियों के हाथ बेच देता है। इस गोरखधंधे में ग्राम पंचायत अधिकारी, पंचायत प्रतिनिधि, बीडीओ, पूर्ति निरीक्षक, विपणन निरीक्षक एसडीएम और डीएसओ तक शामिल हैं। इन लोगों का दुकानदारों से माहवारी हिस्सा फिक्स है जो गरीबों का हक मारकर दुकानदार पहुंचाते हैं। लकड़ी महंगी हो गई है और रसोई गैस ब्लैक मर्केटिंग में बिक रहा है। किरोसिन को मिलावटखोरों ने लूट रखा है और गरीबों को सस्ते दर पर बिजली देने की कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसे में गरीब कहां जाय, क्या करे उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा। इससे इतर सरकार फिर डीजल, पेटोल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ा रही है। सरकार का यह कदम गरीबों की पीड़ा को और बढ़ा देगा। सरकार के मंत्रियों का यह बयान और भी सालता है कि महंगाई अभी और बढ़ंगी। उन्हें कौन बताये कि देश का गरीब किन हालातों का सामना कर रहा है। या तो गरीबी के बारे में जानते नहीं या जानने की कोशिश नहीं करते। उन्हें तो गरीबों के वोट बैंक के जरिये अपनी रोटी सेंकने की जो आदत पड़ चुकी है।
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