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पहले सहारनपुर पिफर वाराणसी और अब बुलंदशहर जहरीली शराब से लगातार मौतों का सिलसिला जारी है फिर भी शासन सो रहा है। हैरत की बात यह है कि इन हादसों के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह अधिकारियों का बाल बांका नहीं हो रहा है जबकि छोटे कर्मचारियों की गर्दन मरोड़ कर कार्रवाई की खानापूरी कर दी जा रही है। सवाल उठता है कि जहरीली शराब से हो रही मौतों को जिम्मेदार कौन है। इसके लिए जिला मजिस्टेट, पुलिस अधीक्षक और आबकारी अधिकारी सीधे तौर पर जवाबदेही से बच नहीं सकते। यहां यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि पुलिस, प्रशासन और आबकारी विभाग मौत का सामान बेचने की खुली छूट दे रहे हैं। थानों की इक्जाई बढ़ाने के लिए थानेदार माहवारी रकम की वसूली कराता है तो आबकारी विभाग के कर्मचारी भी हर महीने शराब का अवैध धंधा करने वालों से सुविधा शुल्क वसूलते हैं, वहीं प्रशासन की भूमिका धृतराष्ट सरीखी है। यही कारण है कि आज यूपी का शायद ही ऐसी कोई ग्राम पंचायत या मोहल्ला होगा कि जहां शराब का निर्माण और बिक्री न होती हो। इस धंधे में कतिपय सफेदपोश भी शामिल हैं। ऐसे लोगों को सतादल की छांव मिलना भी धंधे को बढ़ावा देने में अहम है। शराब बनाने और उससे अधिकाधिक लाभ कमाने के लिए इस धंधे के अपराधी यूरिया, केमिकल और स्प्रिट जैसे घातक पदार्थों का इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं। इस कारण छोटे तबके के लिए सुलभ यह जहर हर जगह आसानी से मिल जायेगा। आबकारी एक्ट की जमानतीय धारा भी इस खतरनाक कारोबार को बढावा दे रही है। पुलिस कुछेक मामलों में गैंगस्टर तक की कार्रवाई भी कर रही है लेकिन अपराधियों की तुलना में यह कार्रवाई नाकाफी है। मौतों का सिलसिला रोकने के लिए शासन को जिले के आला अधिकारियों की सीधे तौर पर जवाबदेही फिक्स करनी होगी किसी भी घटना के बाद उनके ऊपर होने वाली कार्रवाई के डर से शराब के अवैध धंधे पर अंकुश लग सकेगा। वहीं थानाध्यक्षों और आबकारी निरीक्षकों पर बर्खास्तगी जैसी कठोर कार्रवाई की जरूरत है तभी मौत का कारोबार थम सकेगा।
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