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महिलाओं को आरक्षण दिये जाने के मसले पर देश के दोनों सदनों में सोमवार को जो कुछ भी हुआ वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। उच्च सदनों में देश के बड़े नेताओं ने जो छीना-झपटी की उसे देखकर यही लग रहा था कि हम किसी गांव की पंचायत का नजारा देख रहे हैं जहां किसी बिल को लेकर नहीं बल्कि कोटे की दुकानों और भूमि के पटटे को लेकर बल दिखाया जा रहा था। यदि देश को दशा-दिशा देने वाले नेता ही ऐसा करेंगे तो हमारा समाज किधर जायेगा ? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। सवाल है कि क्या अबलाओं को सबला बनाने के लिए उन्हें आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए? वह भी उस देश में जहां सदियों ने नारी पूजनीय है। कहते हैं कि यत्र नारी पूज्यंते रमंते तत्र देवता लेकिन सियासतदा को शायद यह नागवार लग रहा है। इस क्षेत्र में पुरुषों का एकाधिकार बन जाने से महिलाओं को हक से वंचित रह जाना पड़ रहा है। शायद उन्हें इस बात का डर है कि कहीं आरक्षण लागू हो जाने से उनकी घ्ररवालियों के हाथ में सत्ता की कमान न चली जाय। अब सवाल उठता है कि महिला आरक्षण को लेकर इतना बबेला क्यों है। इस सवाल के जवाब में महिला आरक्षण बिल का विरोध करने वाले दलों व नेताओं का तर्क है कि वे आरक्षण के विरोधी नहीं हैं बर्शर्ते इसमें मुस्लिम, दलित और पिछडी जाति के महिलाओं को अलग से आरक्षण का कोटा फिक्स होना चाहिए। इस तर्क से वह कहावत याद आ गयी कि हाय अल्ला पाण्डे में भी पाण्डे। दर असल महिला आरक्षण बिल का विरो ध करने वाले नेता अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में हैं उन्हें इससे मतलब नहीं है कि महिलाएं भी प्रदेश व देश की राजनीति में आगे बढे या उनकी दशा सुधर सके। समाज को जाति व वर्गों में बांटकर वोटों को लूटने की कोशिशें भी जारी हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था जाति या लिंग के आधार पर किया जाना ठीक नहीं है। काबिल और उस विधा में रहने वालों को ही हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की व्यवस्था होनी चाहिए तभी देश की तरक्की होगी और वह समूचे विश्व में शिखर पर आ सकेगा लेकिन यदि आरक्षण की व्यवस्था बनती है तो महिलाओं का कोटा फिक्स होना चाहिए लेकिन उसमें जातियों को अलग से महत्व दिये जाने की बात बेमानी होगी।
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