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एक ओर महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी का मुददा सुरसा की मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है दूसरी ओर हमारे नेता इन सबसे पर शक्ति प्रदर्शन की होड़ में लगे हैं। यूपी में तो इसका ज्यादा चलन है। कोई यात्राओं के बहाने तो कोई रैलियों के जरिये अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश कर रहा है। इन कार्यक्रमों पर लाखों, करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। वहीं इनसे आमजन को जो परेशानी होती है सो अलग। नेताओं के बुलावे पर कार्यकर्ता और उनके समर्थकों का रेला जब चलता है तो रेलवे और सड़क परिवहन बुरी तहर प्रभावित होता है। यात्रियों की मुसीबत बढ़ जाती है उनकी सीटों पर पोलैटिकल वर्करों का कब्जा हो जाता है। यातायात में बाधा के साथ ही हादसे भी होते हैं इसके बावजूद नेताओं पर इसका कोई असर नहीं है। अब सवाल उठता है कि इन आयोजनों के बहाने आखिर क्या दिखना चाहते हैं इन सबसे क्या हासिल होता है। इस बारे नेताओं को ही नहीं जनता को भी सोचना होगा कि उन्हें क्या हासिल होता है। जवाब है सिवाय नेताओं के महिमा मण्डन के कुछ भी नहीं मिलता। दर असल राजनीतिक डामें के जो बड़े शो होते हैं वे या तो सत्तादल के होते हैं अथवा उसके प्रतिद्वंद्वदी दलों के। कोई पहले से धनबल व जनबल अर्जित कर चुका होता है तो कोई इस दिशा में प्रयत्नशील रहता है। ऐसे आयोजनों न करने की दशा में नेता तो कुछ सोचेंगे नहीं इसके लिए आवाम या फिर न्याय पालिका को आगे आना होगा। ज्यादातर लोगों को यह मालूम होगा कि विगत वर्ष लखनऊ में आयोजित रैली के दौरान हादसे के बाद पार्टी की सुप्रीमों ने कहा था कि अब वह प्रदेश मुख्यालय पर रैलियां नहीं करेंगी लेकिन उनकी यह घोषणा ज्यादा दिनों तक टिक न सकी। एक बार फिर उन्होंने लाखों की भीड जुटाकर पार्टी और खुद का जलवा अफरोज जरूर किया लेकिन यह आयोजन बुद्विजीवियों के बीच बहस को हवा देने वाला है। इस मुददे पर सभी दलों और उनके प्रमुख नेताओं को चिंतन मंथन करना चाहिए कि रैली और सभाओं के नाम पर मेला बटोरकर वे किसकों दिखाना चाहते हैं गरीब, लाचार जनता को यह फिर खुद अपने आप को।
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