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बाबा साहब के जन्‍मदिन पर यह कैसा तोहफा

अजेय
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देश के संविधान की रचना होते समय बाबा साहेब डा भीमराव अम्‍बेडकर को सपने में भी इस बात का भान नहीं रहा होगा कि समाज के जिस दबे कुचले वर्ग को वे आगे लाना चाहते थे। उानके जीवन स्‍तर में सुधार और रोजी रोटी की व्‍यस्‍था बनाना चाहते थे वह वर्ग राजनीतिक कुकुरकाट का प्रतीक बन जायेगा। अपना उल्‍लू सीधा करने के लिए राजनीतिक पार्टियां उन्‍हें मोहरा बनायेंगी। हर कोई खुद को हितैषी बता रहा है। कोई उनके नाम पर शासन सत्‍ता चला रहा है तो कोई गरीब की झोपड़ी में टूटी खाट पर बैठकर दलितों का हमदर्द होने का दिखावा कर रहा है। यहां यह कहने में गुरेज नहीं है कि देश की आजादी के बाद समाज के कमजोर तबके के लोगों के लिए तमाम तरह की योजनाएं बनीं। उनका जीवन  स्‍तर सुधारने के लिए मजदूरी की व्‍यवस्‍था की गई। नौ‍करियों और शिक्षा  में आरक्षण भी दिये जाने की व्‍यवस्‍था है। इसके बावजूद गरीबों की जीवन रेखा पटरी पर आती नहीं दिख रही है। कारण सरकार कितनी भी योजनाएं बनाये उनकों को संचालित और क्रियान्वित कराने का जिम्‍मा सरकारी अहमलकारों का है। हकीकत में सुविधाओं पर सयाने लोगों का कब्‍जा है। गांव और गलियों में रहने वाले निरक्षर और गरीबों को नहीं पता कि उनके लिए क्‍या-क्‍या सुविधाएं सरकार ने दे रखी है। कोई कर्ज दिलाने के बहाने उन्‍हें ठग रहा है तो कोई छूट का लाभ लेने के लिए अपने चक्‍कर में फंसा क शोषण कर रहा है। नतीजतन गरीब जहां का तहां रह जा रहा है। चुनाव आते ही सियासी दल अपना उल्‍लू सीधा करने के लिए गरीबों का मददगार होंने का राग अलापने लगते हैं। इस कारण बिरजू और कददू को हमने बीस साल पहले जिन हालातों में देखा था वह आज भी वैसे हैं। बिरजू हमारे गांव में मेहनत मजदूरी कर रोटी की व्‍यवस्‍था करता है तो कुददू शहर में ठेला चलाकर परिवार का पेट पाल रहा है। ऐसी दशा बाबा सचाहब के जन्‍मदिन पर देशा व प्रदेश में सत्‍तासीन राजनीतिक दलों के बीच छिड़ा घमासान बिडम्‍बना नहीं तो क्‍या है। दलितों को रिझाने के लिए दोनों के बीच वाकयुद्व व जोर आजमाइश तेज हो गई है अब देखना है कि यह द्वंद्व किस स्‍तर तक जाता है।  सवाल है कि दोनों दल खुद को बाबा साहब का बडा अनुयायी बता रहे हैंए ऐसे में उनके जन्‍मदिन पर शीतयुद्व का यह कैसा तोहफा है।

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