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शीलू और शीला जाने-अनजाने हर किसी की जुबान पर है। बांदा जिले की नाबालिग बालिका जहां सत्ता के गलियारे में हवश का शिकार बनी वहीं शीला की जवानी जैसे फूहड़ गाने से एक बार फिर हिंदी सिनेमा में पटकथा के बजाए आइटम सांग के बढ़ते प्रचलन का खुलासा हुआ। शीलूकांड की रोशनी में जाने से पता चलता है कि एक गरीब परिवार की लड़की किस तरह वासना और साजिशों का शिकार हुई। उसकी मदद का भरोसा देकर जहां बसपा विधायक और उसके गुर्गे दुराचार करते रहे। वहीं हकीकत पर पर्दा डालने के लिए उसे चोरी जैसी फर्जी घटना में जेल भेजवाकर लीपापोती का प्रयास किया गया। इस कृत्य में जितना दोषी विधायक व उसके गुर्गे हैं उससे कहीं ज्यादा सरकारी सिस्टम और उस पर हावी पोलैटिकल प्रेशर है। यह घटना इस बात का द्योतक है कि किस तरह सत्तादल के नेताओं को खुश करने के लिए नौकरशाह उनके एजेंट बन जाते हैं। सत्ता की बदौलत हैवानियत का यह कोई अकेला मामला नहीं है। इससे पूर्व कवियत्री मधुमिता, शशि और कविता राजनीतिक गलियारों में दरिंदगी का शिकार हो चुकी हैं। मामला मीडिया और विपक्षी दलों द्वारा तूल नहीं पकड़ाया गया होता तो शायत शीलू कांड का मुख्य अभियुक्त विधायक पर कार्रवाई नहीं होती। यह बात दीगर है कि ताजा घटना को लेकर आवाज उठाने वाले सपा, भाजपा व कांग्रेस नेताओं को उन घटनाओं की याद भी करनी चाहिए जो उनके शासनकाल हुईं थीं। यदि उनकी वर्तमान सोच भविष्य में भी टिकी रही तो शायद शासन-सत्ता में आने के बाद भी वह पीडि़तों को न्याय दिलाने में तनिक संकोच नहीं करेंगे, आरोपी चाहे उनके ही दल का ही क्यों न हो। हालांकि अमूमन ऐसा होता नहीं है। बांदाकांड के बाद दूसरा सबसे चर्चित मामला शीला की जवानी का है। यह गाना बच्चों, युवाओं की जुबान पर आम है। ऐसे में उन लड़कियो की आफत आ गई जिनके मां-बाप ने उनका नाम शीला रख दिया था। घर से निकलते ही गली के शोहदे हों या स्कूल-कालेज में सड़क छाप मजनू। सभी गाने की इसी लाइन के जरिए शीलाओं की लज्जाभंग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। सरकारों और फिल्म सेंसर बोर्ड को ऐसे गानों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए जिससे किसी नाम विशेष की महिला को अपमानित न होना पड़े।
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